लेखनी कहानी -09-Mar-2023- पौराणिक कहानिया
अध्याय 36
इस भाँति एक महीना
गुजर गया। एक
दिन सुभागी कुल्सूम
के यहाँ साग-भाजी लेकर
आई। वह अब
यही काम करती
थी। कुल्सूम की
सूरत देखी, तो
बोली बहूजी, तुम
तो पहचानी ही
नहीं जातीं। क्या
कुढ़-कुढ़कर जान
दे दोगी? बिपत
तो पड़ ही
गई है, कुढ़ने
से क्या होगा?मसल है,
ऑंधी आए, बैठ
गँवाए। तुम न
रहोगी तो बच्चों
को कौन पालेगा?
दुनिया कितनी जल्दी अंधी
हो जाती है।
बेचारे खाँ साहब
इन्हीं लोगों के लिए
मरते थे। अब
कोई बात भी
नहीं पूछता। घर-घर यही
चर्चा हो रही
है कि इन
लोगों को ऐसा
न करना चाहिए
था। भगवान् को
क्या मुँह दिखाएँगे।
कुल्सूम-अब तो
भाड़ लीपकर हाथ
काला हो गया।
सुभागी-बहू, कोई
मुँह पर न
कहे, लेकिन सब
थुड़ी-थुड़ी करते
हैं। बेचारे नन्हे-नन्हे बालक मारे-मारे फिरते
हैं, देखकर कलेजा
फट जाता है।
कल तो चौधारी
ने माहिर मियाँ
को खूब आड़े
हाथों लिया था।
कुल्सूम को इन
बातों से बड़ी
तस्कीन हुई। दुनिया
इन लोगों को
थूकती तो है,
इनकी निंदा तो
करती है, इन
बेहयाओं को लाज
ही न हो,तो कोई
क्या करे। बोली-किस बात
पर?
सुभागी कुछ जवाब
न देने पाई
थी कि बाहर
से चौधारी ने
पुकारा। सुभागी ने जाकर
पूछा-क्या कहते
हो?
चौधारी-बहूजी से कुछ
कहना है। जरा
परदे की आड़
में खड़ी हो
जाएँ।
दोपहर क समय
था। घर में
सन्नाटा छाया हुआ
था। जैनब और
रकिया किसी औलिया
के मजार पर
शीरनी चढ़ाने गई
थीं। कुल्सूम परदे
की आड़ में
आकर खड़ी हो
गई।
चौधारी-बहूजी, कई दिनों
से आना चाहता
था, पर मौका
न मिलता था।
जब आता, तो
माहिर मियाँ को
बैठे देखकर लौट
जाता। कल माहिर
मियाँ मुझसे कहने
लगे, तुमने भैया
की मदद के
लिए जो रुपये
जमा किए थे,
वे मुझे दे
दो, भाभी ने
माँगे हैं। मैंने
कहा, जब तक
बहूजी से खुद
न पूछ लूँगा,
आपको न दूँगा।
इस पर बहुत
बिगड़े। कच्ची-पक्की मुँह
से निकालने लगे-समझ लूँगा,
बड़े घर भिजवा
दूँगा। मैंने कहा,जाइए
समझ लीजिएगा। तो
अब आपका क्या
हुक्म है? ये
सब रुपये अभी
मेरे पास रखे
हुए हैं, आपको
दे दूँ न?
मुझे तो आज
मालूम हुआ कि
वे लोग आपके
साथ दगा कर
गए!
कुल्सूम ने कहा-खुदा तुम्हें
इस नेकी का
सबब देगा। मगर
ये रुपये जिसके
हों, उन्हें लौटा
दो। मुझे इनकी
जरूरत नहीं है।
चौधारी-कोई न
लौटाएगा।
कुल्सूम-तो तुम्हीं
अपने पास रखो।
चौधारी-आप लेतीं
क्यों नहीं? हम
कोई औसान थोड़े
ही जताते हैं।
खाँ साहब की
बदौलत बहुत कुछ
कमाया है, दूसरा
मुंसी होता, तो
हजारों रुपये नजर ले
लेता। यह उन्हीं
की नजर समझी
जाए।
चौधारी ने बहुत
आग्रह किया, पर
कुल्सूम ने रुपये
न लिए। वह
माहिर अली को
दिखाना चाहती थी कि
जिन रुपयों के
लिए तुम कुत्तों
की भाँति लपकते
थे, उन्हीं रुपयों
को मैंने पैर
से ठुकरा दिया।
मैं लाख गई-गुजरी हँ, फिर
भी मुझमें कुछ
गैरत बाकी है,
तुम मर्द होकर
बेहयाई पर कमर
बाँधे हुए हो।
चौधारी यहाँ से
चला, तो सुभागी
से बोला-यही
बड़े आदमियों की
बातें हैं। चाहे
टुकड़े-टुकडे उड़ जाएँ,
मुदा किसी के
सामने हाथ न
पसारेंगी। ऐसा न
होता, तो छोटे-बड़े में
फर्क ही क्या
रहता। धान से
बड़ाई नहीं होती,
धरम से होती
है।